जागो हे मेरी सुषुप्त चेतना
जागो जागो जागो
नवल कण्ठ से मृदुल मुस्कान सहित
भव सागर में जागो।
नित्य नये परिधानों से शोभित
अमृत कुंज की बारिश में भीगों कर
प्रीत की संगीतो मे बंधकर
मेरी चेतना को हर्षाओ।
जागो हे मेरी सुषुप्त वेदना
जागो जागो जागो
जब तुम जागोगे झंकृत होंगे रोम रोम
फिर अनुभुति होगी परम चित की।
जैसे पतझड़ को बसंत की
ग्रीष्म को अनुभुति हो शरद की
हर बेला और हर पल में
तुम जागो जागो जागो।
गहन अन्धकार में एक मद्धिम दीप
जलता रहा है युगो युगो से
सृष्टि की हर लीलाका साक्षी बन
जलता रहा मद्धिम दीप।
तुम जागो हे नवीन चेतना
सुर के सप्त ध्वनि में जागो
जैसे यौवन लेता अंगड़ाई
फिर से बसंत ऋतु है आई।
जागो हे मेरी अलख चेतना
जागो फिर एक बार
भर दो मेरे जीवन को
अनंत साधनाओं के करीब।
सर्वाधिकार सुरक्षित
@ रमेश राय
दिनांक २७/३/२०१९
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