तू जिधर भी गया मैं उधर जाऊँगा
तुझसे उभरा हूँ तुझ मैं उतर जाऊँगा
सारे आलम की नज़रों से मतलब नहीं
तू जो देखे तो मैं भी संवर जाऊँगा
साँस लेने की हिम्मत भी बाकी नहीं
कुछ ही पल में जहां से गुज़र जाऊँगा
उसके घर का यहाँ कोई जीना नहीं
कैसे घर से ख़ुदा के मैं घर जाऊँगा
रास्ते पर पड़ा मुझको पत्थर न कह
पंखुड़ी हूँ हिलूंगा …. तो झर जाऊँगा
Leave a Reply