‘येही तो परिपेक्ष है’
मनमे जज्बात है फिर भी यह कहती हूँ
क्या कहूं में सबको इसके बारे में सोचती हूँ
बंध करो ये सब अत्याचार अब बहूत हो गया
मन मैला और कुंठित आप सबका अचानक कैसे हो गया?
वो दिन थे जब माता सन्मान के पात्र थी?
जिनकी कहानियां छपती थी जो सचित्र होती थी
सर हमारा गर्व से ऊंचा हो जाता था
बस लोक कथा का निर्माण और गर्व प्रदान कर जाता था
पढ़ के और उलट के देखो इतिहास के पन्ने
रेह जाओगे विस्मित और चोकन्ने
येही है है उन के बलिदान की कहानियां
आजकाल तो सब रेह गयी है बदनामी की कारनामियां
ना करो इतना जुल्म की धरती चिधाड उठे
अपने ही बच्चों पर तिरस्कार कर उठे
‘क्या येही है हमारी मावजत का फलसफा?
नारी जात को येही लोग केह रहे है ‘बेवफा’?
गंगा कितनी पवित्र जननी है
फिर भी कितनी गन्दगी डाली जाती है
फिर भी कुम्भ के दिन डुबकी लगाने तुम्हे वहीँ जाना है
ये कैसा उपहास है? बच्चेकी आस में भी यही आना है
जग जाओ नारी अभी भी गंगोत्री का पवित्र मुख है
धर्म का विधान और चरित्र का सुख है
एक दिन आयेगा आपके सामने ही माँ बहने अपमानित होगी
आपके सामने ही अपवित्र होगी और रातें कालिख पोतेगी
‘बच्चियों का जन्म होने के पहले ही मार देते हो ‘ यह ठीक नहीं
नारियों को नरक में धकेल देना यह भी हमारी संस्कृति नहीं
सोच लो अब तुम्हे क्या करना है अपनी माँ बहनो के लिए?
क्या कभी बेच पाओगे उनको चंद गहनो के लिए?
हमारे मन में उल्कापात है फिर भी शांत है
आपकी उत्पत्ति ही हमारी खैरात है
आप सबके विचार खुराफाती है फिर भी हम हैरान है
आप सुखी नहीं है इसलिए ही जिंदगी भी विरान है
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