‘फांसी दो, फांसी दो ‘
स्वच्छ पानी और हवा है जहाँ
मेरे बालक तंदुरस्त है वहाँ
जहाँ प्रेम है बसता खून में
वहॉं कैसे होगी नफरत भी नाख़ून में?
धरती ने दिया है मबलख़ पाक
फिर मनसूबे कैसे हो नापाक!
जिसकी नदियां में बहता हो पानी
हम क्यों करे उसकी धूलधानी?
स्वर्ग समाया हुआ है जहाँ में
लोग भी बसे है रैनबसेरे में
ऊँची ऊँची मोहलाते भी दिखती यहाँ
गरीब की बस्ती भी मिलती है यहाँ
पता नहीं क्या हो गया है सोने कि चिड़िया को?
सबने मिलकर उखाडा है उसकी बग़िया को
नहीं सुनाई देती उसकी गुँज किसी भी पेड़ पर
पैड़ों को ही हमने उखांड फैके है धरती पर
ना कोई बहन सुरक्षित है ना घर की नार
उनपर जुल्म ढाये जा रहे है अपार
न दिन ही उझाला दिखा सकता है
न ही रात सात्वना देकर रुला सकती है
हर शख्स अपनी हवस लेकर घूम रहा है
नारी को जागीर संमजकर चूम रहा है
उसकी अस्मिता का मानो कोई मोल ही नहीं रह गया हो
अपनी माँका खून मानो नस में बहना बंध हो गया हो
ना कोई बहन सुरक्षित है ना ही घर की नार
उनपर जुल्म ढाये जा रहे है अपार
न दिन ही उझाला दिखा सकता है
न ही रात सात्वना देकर रुला सकती है
हर शख्स अपनी हवस लेकर घूम रहा है
नारी को जागीर संमजकर चूम रहा है
उसकी अस्मिता का मानो कोई मोल ही नहीं रह गया हो
अपनी माँ का खून मानो नस में बहना बंध हो गया हो
छोटा तो छोटा मनमानी पर तुला है
समाज बौखलाया हुआ और आगबबूला है
‘फांसी दो, फांसी दो ‘ का नारा अब गूंजने लगा है
मिटटी भी रुक रूककर अपने आंसू पोंछ रही है
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