खुद बनकर नंगे
गंगा की सौगंध
मेरा हो गया मोहभंग
नहीं रह गया कोई संशय
ये नहीं है मेरा आशय।
पर धाराएं आज पवित्र नहीं
हमने उन्हें रहने दिया ही नहीं
कितनी गंदगी हररोज डालते है
फिर भी कुछ जैसे समझते ही नहीं?
मैंने सोचा ‘काव्यधारा’ के माध्यम सी थोड़ा आंसू बहालु
हो सकता है कोई थोडा सा सोच ले बनके श्रद्धालु
पावन तो हम कर नहीं सकते पर आह्वाहन जरूर दे सकते है
मन में बसजाय राम तो ये उम्दा काम भी कर सकते है।
मेरा नल हरदम खुला रहता है
पैसा जो में चुकाता हूँ
‘किसी को मिले या ना मिले’ मुझे तो मिल रहा है
मेरा किस्मत मेरे साथ खड़ा है।
नहीं करनी परवाह मुझे उन लोगों की
जो नहीं के बराबर है पर कहते है ‘सोचो की’
‘यदि नीर पावन नहीं हुआ ‘ तो हम सब खतरे में पड जाएंगे?
‘अगली पीढ़ी कैसी होगी’ वो हम बता नहीं पाएंगे।
सोचना गलत नहीं है
सब की भावना भी अभी यही है
पर हम कर नहीं पा रहे है
कोई और कर लेगा’ केहकर पल्ला झाड़ लेते है।
खूब बहाया खून हमने गंगा के लिए
अब साफ़ जल तो बहने दीजिये
‘हमारी धरोहर है माता है गंगे’
“हम क्यों कर रहे है उसे अपवित्र” खुद बनकर नंगे”
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